बेज़ुबान जानवरों पर ज़ुल्म: हमारी शैतानी सोच का आईना

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बेज़ुबान जानवरों पर ज़ुल्म: हमारी शैतानी सोच का आईना

लेखक : रोहित कुमार

आज का समाज जिस दिशा में आगे बढ़ रहा है, वहाँ बेज़ुबान जानवरों पर ज़ुल्म करना धीरे-धीरे एक आम बात बनता जा रहा है। जो सभ्यता खुद को आधुनिक और शिक्षित कहलाती है, वही सभ्यता अपने आसपास मौजूद सबसे कमज़ोर जीवों के प्रति सबसे अधिक निर्दयी होती जा रही है। यह केवल जानवरों पर अत्याचार नहीं है, बल्कि हमारी सोच के पतन और इंसानियत के मरते जाने का प्रमाण है।
बेज़ुबान जानवर अपनी पीड़ा को शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते। वे न अदालत जा सकते हैं, न अपनी शिकायत दर्ज करा सकते हैं। इसी कमज़ोरी का फायदा उठाकर इंसान अपनी शैतानी सोच को उन पर थोप देता है। कभी पत्थर मारना, कभी ज़हर देना, कभी जलाना तो कभी भूखा-प्यासा छोड़ देना—ये सब कृत्य यह दिखाते हैं कि हम ताकत को करुणा से ऊपर रखने लगे हैं।
इस ज़ुल्म की सबसे बड़ी वजह असंवेदनशीलता है। हम यह भूल चुके हैं कि जानवर भी दर्द महसूस करते हैं, डरते हैं और जीना चाहते हैं। स्वार्थ, ग़ुस्सा और झूठा अहंकार इंसान को इतना अंधा कर देता है कि उसे किसी की पीड़ा दिखाई ही नहीं देती। सड़क पर रहने वाले जानवरों को हम समस्या मानते हैं, जबकि असल समस्या हमारी सोच है।
दुखद सच्चाई यह है कि समाज का एक बड़ा वर्ग इस ज़ुल्म को देखकर भी चुप रहता है। जब अन्याय के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई जाती, तब वह अन्याय और मज़बूत हो जाता है। बच्चों के सामने जानवरों पर अत्याचार होना उन्हें भी वही क्रूरता सिखाता है, जिससे आने वाली पीढ़ियाँ और संवेदनहीन बनती हैं।
हमें यह समझना होगा कि बेज़ुबान जानवरों पर किया गया ज़ुल्म केवल उनका नहीं, बल्कि पूरे समाज का नैतिक पतन है। इंसानियत का असली मतलब कमजोर की रक्षा करना है, न कि अपनी शैतानी सोच से उसे कुचल देना। जब तक हम अपने भीतर की क्रूरता को नहीं पहचानेंगे और उसे बदलने का साहस नहीं करेंगे, तब तक यह ज़ुल्म रुक नहीं सकता। अब समय है कि हम इंसान होने का सबूत दें, न कि केवल इंसान कहलाएँ।

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