बेजुबानों की सिसकियाँ”
सुनो ज़रा, ये जो गली में रोते हैं,
बेजुबां हैं, फिर भी दर्द ये ढोते हैं।
धूप में जलें, बारिश में भीगें,
भूखे सोएं, फिर भी जी लें।
रात के अंधेरों में कांपते ये,
कभी प्यार को तरसते ये।
क्यों करते हो इन पर जुल्म इतना,
ये भी तो हैं इस दुनिया का हिस्सा।
थोड़ा सा प्यार, थोड़ा सा खाना,
बस यही है इनका ख्वाब पुराना।
कभी कोई पत्थर उठाता है,
कभी कोई मार के चला जाता है।
फिर भी ये वफादार रहते,
हर किसी से प्यार ये करते।
हम नफरत का जहर घोलें ना,
इनकी दुआएं कबूल हों ना।
आओ ज़रा हाथ बढ़ाएँ,
इन मासूमों को अपनाएँ।
सुनो ज़रा, ये जो गली में रोते हैं,
हमसे उम्मीदें रखते हैं जोते हैं।
रोहित कुमार


