जब न्याय ही बेज़ुबानों को चोट पहुँचाए: इंसानियत की परीक्षा
लेखक : रोहित कुमार
अक्सर कहा जाता है कि जब कहीं अन्याय हो, तो इंसान पुलिस के पास जाता है। लेकिन हकीकत यह है कि जब बेज़ुबान जानवरों पर हो रही क्रूरता की बात आती है, तो ज़्यादातर मामलों में पुलिस का रवैया निराशाजनक ही रहता है। शिकायतें दर्ज नहीं होतीं, या फिर उन्हें “छोटी बात” कहकर टाल दिया जाता है। ऐसे में जानवरों से प्रेम करने वाले लोग आख़िरी उम्मीद के तौर पर अदालत का दरवाज़ा खटखटाते हैं, क्योंकि उन्हें भरोसा होता है कि न्यायपालिका संवेदनशीलता और संविधान दोनों को समझेगी।
लेकिन आज स्थिति और भी पीड़ादायक होती जा रही है। हाल के आदेशों और व्याख्याओं के बाद, गली के जानवरों को “डिसलोकेट” करने की बात को वैध समाधान की तरह पेश किया जाने लगा है। इसका सीधा असर इन बेज़ुबानों पर बढ़ती क्रूरता के रूप में सामने आ रहा है। लोग अब आदेशों का सहारा लेकर उन्हें जबरन पकड़वाते हैं, दूर छोड़ आते हैं, या उन्हें समस्या मानकर हटाने को ही न्याय समझने लगे हैं।
यह समझना बेहद ज़रूरी है कि गली के जानवर “गली रक्षक” होते हैं। वे अपने इलाके से जुड़े होते हैं, वहीं सुरक्षित रहते हैं और वहीं संतुलन बनाए रखते हैं। उन्हें जबरन हटाना न केवल अवैज्ञानिक है, बल्कि अमानवीय भी। डिसलोकेशन के बाद कई जानवर भूख, बीमारी, तनाव और सड़क हादसों का शिकार हो जाते हैं। यह न्याय नहीं, बल्कि संगठित पीड़ा है।
जब न्याय की सर्वोच्च संस्था से ऐसे संकेत जाते हैं, तो समाज में यह संदेश जाता है कि बेज़ुबानों की पीड़ा कम मायने रखती है। यही संदेश सबसे खतरनाक होता है। कानून का उद्देश्य करुणा के साथ संतुलन बनाना होना चाहिए, न कि कमजोर को और कमजोर करना।
आज ज़रूरत है कि हमारे न्यायाधीश और निर्णय लेने वाले अधिक संवेदनशील हों। काग़ज़ों पर नहीं, ज़मीन की सच्चाई को समझें। बेज़ुबान बोल नहीं सकते, लेकिन उनकी पीड़ा चीखती है। अगर न्याय ने भी वह चीख़ सुननी बंद कर दी, तो यह केवल जानवरों की नहीं, हमारी इंसानियत की हार होगी।


