कुत्तों को “डिसलोकेट” करने की बात करने वालों की मानसिकता: इंसानियत के पतन की कहानी
लेखक : रोहित कुमार
आज के समाज में जब कोई व्यक्ति कुत्तों या किसी भी जानवर को “डिसलोकेट” करने की बात करता है, तो यह केवल एक प्रशासनिक या व्यवहारिक सुझाव नहीं होता, बल्कि उस व्यक्ति की मानसिकता को भी उजागर करता है। “डिसलोकेशन” शब्द सुनने में भले ही तकनीकी और सभ्य लगे, लेकिन इसके पीछे छिपी सोच अक्सर संवेदनहीनता, डर और जिम्मेदारी से बचने की प्रवृत्ति को दर्शाती है।
ऐसे लोग जानवरों को समस्या के रूप में देखते हैं, जीवन के रूप में नहीं। वे यह भूल जाते हैं कि कुत्ते भी इसी समाज का हिस्सा हैं, जिनकी भूख, डर, दर्द और भावनाएँ होती हैं। सड़क पर रहने वाले कुत्तों की आक्रामकता या परेशानी का कारण स्वयं इंसानों द्वारा पैदा की गई परिस्थितियाँ होती हैं—जैसे भोजन की कमी, अत्याचार, प्रजनन नियंत्रण का अभाव और बार-बार की गई क्रूरता। लेकिन समाधान खोजने के बजाय, कुछ लोग सबसे आसान रास्ता चुनते हैं: “हटा दो, कहीं और छोड़ दो।”
इस मानसिकता के पीछे सबसे बड़ी वजह है सहानुभूति का अभाव। जब इंसान अपने स्वार्थ और सुविधा को ही सर्वोपरि मान लेता है, तब इंसानियत धीरे-धीरे मरने लगती है। जानवरों के दर्द को न समझ पाना, उनके अस्तित्व को बोझ मानना और उन्हें जबरन उनके क्षेत्र से हटाने की सोच, समाज में बढ़ती असहिष्णुता और क्रूरता का संकेत है।
इसके अलावा, कानून और वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी का अभाव भी इस सोच को बढ़ावा देता है। बहुत से लोग नहीं जानते कि कुत्तों को डिसलोकेट करना न केवल अमानवीय है, बल्कि अवैज्ञानिक भी है, क्योंकि इससे समस्या खत्म नहीं होती, बल्कि और बढ़ जाती है।
असल समाधान करुणा, जागरूकता और जिम्मेदारी में है। जब तक हम जानवरों को अपने बराबर का जीव नहीं समझेंगे, तब तक इंसान कहलाने का नैतिक अधिकार भी खोते रहेंगे। इंसानियत की असली पहचान कमजोर की रक्षा में है, न कि उसे हटाने


