जब इंसानियत मर जाती है: फ़्लैट वालों की राक्षसी प्रवृत्ति और बेज़बान जीवों पर हमले

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जब इंसानियत मर जाती है: फ़्लैट वालों की राक्षसी प्रवृत्ति और बेज़बान जीवों पर हमले

लेखक – रोहित कुमार, इंसाफ़ एक्सप्रेस

शहरों की ऊँची-ऊँची इमारतों में रहने वाले कुछ लोग आजकल ऐसा व्यवहार कर रहे हैं कि उनकी मानवता पर संदेह होना स्वाभाविक है। जिन लोगों के पास आराम, संसाधन और सुरक्षा है, वे अक्सर अपने लाभ और सुविधाओं को सर्वोपरि रखकर दूसरों के हक़ और ज़िंदगियों को कुचल देते हैं। यह सिर्फ असहमतिपूर्ण रवैया नहीं रहा — यह धीरे-धीरे एक राक्षसी प्रवृत्ति का रूप ले चुका है जहाँ बेज़बान जानवरों और उन्हें प्यार करने वालों पर हमला सामान्य माना जाता है।

अधिकतर मामलों में यह आक्रामकता इसलिए भी तीव्र होती है क्योंकि आरोपितों के पास सत्ता और सामूहिकता की ताकत होती है। एक-दो शिकायतें, ब्लैकमेल करना, या स्थानीय प्राधिकरणों के दबाव में आकर फीडिंग प्वाइंट हटवा देना — ये सब उपाय वे अपने अधिकार में मान लेते हैं। जब किसी महिला फ़ीडर को धमकाया जाता है, जब खाने-पीने का सामान फाड़ा जाता है, या जब बेसहारा कुत्तों को भगाने के लिये जानबूझकर नुकसान पहुँचाया जाता है, तो यह केवल जानवरों की ही नहीं, पूरे समाज की गरिमा और संवेदनशीलता पर हमला है।

ये राक्षसी कर्म अक्सर सामाजिक सहनशीलता, सह-अस्तित्व और नियमों के प्रति अनदेखी से जन्म लेते हैं। लेकिन जिम्मेदार नागरिकता का अर्थ यह नहीं कि हम अपनी सुविधा के लिए कमजोरों को अपने दायरे से बाहर कर दें। नैतिकता का आधार दया और न्याय है — और जब यही क्षरण होने लगे तो समाज का ताना-बाना खतरे में पड़ जाता है। ऐसे व्यवहार से हिंसा की संस्कृति पनपती है: आज कुत्तों पर हमला, कल किसी मानव समूह पर भी उभर सकती है। शोध और अनुभव बताते हैं कि जानवरों के प्रति क्रूरता और मानवीय असंवेदनशीलता अक्सर अन्य सामाजिक अपराधों के साथ जुड़ी रहती है।

इस स्थिति का सामना केवल व्याकुल नज़रियों से नहीं किया जा सकता। पहली ज़रूरत है सतर्क नागरिकता की — पड़ोसियों को जागरूक करने की, वीडियो/दस्तावेज़ जमा करने की, और स्थानीय प्रशासन व पुलिस से कानूनी मदद माँगने की। समाज को प्रशिक्षित करना होगा कि ज़रूरतमंदों की मदद करना कसूर नहीं बल्कि कर्तव्य है। महिला फ़ीडर्स को सुरक्षा मुहैय्या कराना, सामुदायिक फीडिंग स्थान पारदर्शी और नियमन के साथ बनवाना और RWA/संसदीय निकायों को ज़िम्मेदार ठहराना आवश्यक है।

साथ ही कानून के दायरे में आकर कार्यवाही भी होनी चाहिए — धारा अपराध हो या पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, उल्लंघन करने वालों पर कड़ी कार्रवाई से ही भविष्य में ऐसे मामलों पर लगाम लगी जा सकती है। मीडिया, NGOs और नागरिक समूहों का संगठनात्मक दबाव भी परिवर्तन लाने में कारगर होता है।

अगर हम समय रहते इन राक्षसी प्रवृत्तियों को नहीं रोकेगे तो हमारी दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई जैसी महानगरों की मानवता धूल में मिल जाएगी। इंसानियत की परीक्षा तब होती है जब हम अपने आराम की कीमत पर किसी और की ज़िंदगी छीनने के बजाय उसकी रक्षा करें। याद रखिए — जो लोग आज बेज़बान जीवों पर अत्याचार कर रहे हैं, कल किसी और इंसान के प्रति भी वही राक्षसी रवैया अपना सकते हैं। समाज की असल ताकत तभी लौटेगी जब हम इंसानियत को फिर से सर्वोपरि मानेंगे।

Insaf Express