खरड़ पुलिस की बेरुख़ी — बेज़ुबानों पर बढ़ते ज़ुल्म की जड़

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खरड़ पुलिस की बेरुख़ी — बेज़ुबानों पर बढ़ते ज़ुल्म की जड़



लेखक: रोहित कुमार

पुलिस का काम होता है सुरक्षा देना, इंसाफ़ दिलाना और समाज में शांति बनाए रखना। लेकिन जब वही पुलिस अपनी जिम्मेदारी भूल जाए, तो उसका परिणाम सबसे पहले उन्हीं पर पड़ता है जो बोल नहीं सकते — बेज़ुबान जानवरों पर।
खरड़, ज़िला मोहाली में पिछले एक साल से लगातार स्ट्रे डॉग्स पर अत्याचार की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। कई बार लोगों ने कुत्तों को पीटने, ज़हर देने और दूर फेंक आने जैसी निर्दयी हरकतों की शिकायतें पुलिस को दीं, पर नतीजा हमेशा एक ही रहा — खामोशी।
ना कोई जवाब, ना कोई कार्यवाही।
यही पुलिस की नालायकी और असंवेदनशीलता है, जो राक्षसी स्वभाव वाले लोगों के लिए वरदान बन चुकी है। जब कानून के रखवाले ही आंखें मूंद लें, तो अत्याचार करने वालों के हौसले अपने आप बढ़ जाते हैं।
आज खरड़ की गलियों में ये निर्दोष कुत्ते दिन-रात डर में जी रहे हैं — कोई कब पत्थर मारेगा, कब ज़हर देगा, कोई नहीं जानता। और पुलिस, जो इंसानियत की रक्षा की कसम खाती है, उसकी खामोशी इन दरिंदों के लिए खुला लाइसेंस बन चुकी है।
पुलिस को चाहिए कि वह सिर्फ़ अपराध नियंत्रण की नहीं, इंसानियत और संवेदनशीलता की भी ट्रेनिंग ले। हर पुलिस अधिकारी को सिखाया जाना चाहिए कि एक जानवर की जान भी उतनी ही कीमती है जितनी एक इंसान की। क्योंकि इंसाफ़ का अर्थ सिर्फ़ इंसानों तक सीमित नहीं — यह उन प्राणियों तक भी पहुँचना चाहिए जिनकी कोई आवाज़ नहीं होती।
आज यह सवाल सिर्फ़ खरड़ की पुलिस से नहीं, पूरे तंत्र से है —
क्या हम इतने पत्थरदिल हो गए हैं कि अब मासूम जीवों की कराह भी हमें सुनाई नहीं देती?
अगर पुलिस अपनी चुप्पी नहीं तोड़ेगी, तो यह चुप्पी आने वाले कल में इंसानियत की कब्र खोद देगी।
अब वक्त है कि पुलिस अपने फर्ज़ को समझे, और बेज़ुबानों के लिए भी इंसाफ़ की आवाज़ बने।
क्योंकि जहाँ इंसाफ़ सिर्फ़ ताकतवरों का होता है, वहाँ इंसानियत मर जाती है।

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