क्या मांसाहार हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है या बेज़ुबानों के दर्द को अनदेखा करने की आदत?

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क्या मांसाहार हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है या बेज़ुबानों के दर्द को अनदेखा करने की आदत?

लेखक – रोहित कुमार

जब हम “मानवता” की बात करते हैं, तो उसका असली अर्थ है — संवेदना, करुणा और जीवन के प्रति सम्मान। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या मांसाहार को हम इंसान होने का अधिकार मान लें, या यह सोचें कि जिस भोजन के लिए किसी जीव की जान ली जाती है, वह वास्तव में हमारी ज़रूरत है या आदत?
प्रकृति ने हर जीव को जीने का हक दिया है — चाहे वह मनुष्य हो या कोई बेज़ुबान पशु। हम इंसान अपने विवेक और समझ के लिए जाने जाते हैं, तो क्या यह विवेक हमें यह नहीं सिखाता कि किसी प्राणी की पीड़ा भी उतनी ही सच्ची होती है जितनी हमारी? मांसाहार के समर्थक अक्सर कहते हैं कि यह परंपरा है या प्रोटीन का स्रोत है, लेकिन क्या संवेदना किसी परंपरा से छोटी हो सकती है?
यह लेख किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए नहीं है। इसका उद्देश्य केवल यह है कि हम एक पल रुककर सोचें — जिस थाली में हम भोजन लेते हैं, क्या उसमें किसी की कराह छिपी है? क्या किसी की माँ ने अपने बच्चे को खोया ताकि वह हमारे स्वाद का हिस्सा बन जाए?
यदि हम सच में इंसान हैं, तो हमें केवल अपने स्वाद नहीं, बल्कि अपने दिल की आवाज़ भी सुननी चाहिए। मांस त्यागना केवल एक भोजन की आदत बदलना नहीं, बल्कि इंसानियत की दिशा में एक कदम है। जब हम दूसरों के जीवन का सम्मान करना सीखेंगे, तभी सच्चे मायनों में मानव कहलाएँगे।

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