निर्दोषता से क्रूरता तक – समाज का आईना
लेखक – रोहित कुमार, इंसाफ़ एक्सप्रेस
जब किसी समाज के छोटे बच्चे किसी मासूम जीव—जैसे गली के कुत्ते या बिल्ली—को पत्थर मारते हैं, डराते हैं या उन्हें तकलीफ़ देते हैं, तो यह केवल एक खेल नहीं होता। यह उस समाज की आत्मा का प्रतिबिंब होता है, जिसने करुणा की जगह क्रूरता को जन्म दिया है। ऐसे बच्चे जिनके हाथों में दया की जगह हिंसा पनपती है, वे धीरे-धीरे मासूम चेहरे के पीछे एक “छोटे राक्षस” का रूप धारण कर लेते हैं।
राक्षस वे नहीं होते जो जंगलों में रहते हैं या पुराणों की कथाओं में आते हैं, बल्कि वे होते हैं जो जीवों की पीड़ा देखकर भी मुस्कुराते हैं। जब कोई बच्चा किसी भूखे कुत्ते पर पत्थर फेंकता है और उसके रोने पर हँसता है, तब समाज को सोचना चाहिए — यह हँसी उसकी निर्दोषता की नहीं, बल्कि मानवीय संवेदना की मृत्यु की हँसी है। ये वही बच्चे हैं जो अपने भीतर दया के स्थान पर क्रूरता का बीज बोते हैं। अगर उस बीज को समय रहते नहीं रोका गया, तो यही बच्चे आगे चलकर समाज के असंवेदनशील नागरिक बनते हैं।
कभी-कभी माता-पिता अनजाने में इस राक्षसी प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। जब वे अपने बच्चों को कहते हैं, “इन आवारा कुत्तों से दूर रहो, ये काट लेंगे,” या जब वे किसी जानवर को भगाने के लिए मारते हैं — तब बच्चा यह सीखता है कि “कमज़ोर प्राणियों को सताना ठीक है।” धीरे-धीरे यह सोच उसकी आदत बन जाती है। वह जानवर को नहीं, बल्कि हर उस चीज़ को छोटा समझने लगता है जो उसके वश में नहीं है।
समाज तब डरावना बन जाता है, जब बच्चे संवेदना खोने लगते हैं। जब किसी गली में कोई घायल कुत्ता पड़ा होता है और बच्चे उसकी मदद करने के बजाय उसका मज़ाक उड़ाते हैं — तब यह मानवता के पतन की सबसे भयानक तस्वीर होती है।
ऐसे बच्चों को राक्षस कहना अतिशयोक्ति नहीं है — क्योंकि राक्षस वही तो होता है जो दूसरों के दर्द में आनंद ढूँढे। फर्क सिर्फ इतना है कि इन छोटे राक्षसों के सिर पर सींग नहीं, बल्कि मासूमियत का मुखौटा है।
अब ज़रूरत है समाज को जागने की — बच्चों को यह सिखाने की कि हर जीव में आत्मा है, हर प्राणी का जीवन मूल्यवान है। क्योंकि अगर हमने इन छोटे राक्षसों को समय रहते नहीं रोका, तो कल यही राक्षस हमारे समाज की संवेदना को निगल लेंगे।


