जब इस दुनिया में इंसान नहीं था, तब धरती पर हरीयाली थी, खुशियाँ थीं — पर इंसान के आने के बाद उसने इस स्वर्ग को खंडहर बना दिया
— लेखक: रोहित कुमार
कहते हैं, जब इस धरती पर इंसान नहीं था, तब यहाँ जीवन शांत था। पेड़ लहराते थे, नदियाँ मुस्कुराती थीं, परिंदे गाते थे और बेज़ुबान जीव खुली हवा में बिना डर के साँस लेते थे। जंगलों में हर तरफ हरियाली थी, धरती मानो स्वर्ग का रूप थी — जहाँ न कोई हिंसा थी, न लालच, न विनाश।
पर फिर आया “इंसान” — वह जीव, जिसे समझदार कहा गया, जिसे विवेक का वरदान मिला, और जिसे प्रकृति का संरक्षक बनना था। पर अफसोस, इंसान ने सृष्टि के इस वरदान को अभिशाप में बदल दिया। उसने पेड़ों को काटना शुरू किया, नदियों को गंदा किया, आसमान को धुएँ से भर दिया और उन बेज़ुबानों को सताना शुरू कर दिया, जो कभी उसके साथी हुआ करते थे।
वह इंसान जो अपने आपको भगवान की सबसे बेहतरीन रचना कहता है, वही आज इस सृष्टि का सबसे बड़ा विध्वंसक बन चुका है। जानवरों को काटना, जंगलों को जलाना, धरती को खोदना, समुद्र को विष से भर देना — यही उसकी पहचान बन गई है। उसने अपने विकास के नाम पर प्रकृति की हर सीमा तोड़ दी, और आज वही धरती, जो कभी हरियाली से ढकी थी, अब खंडहरों में बदल रही है।
बेज़ुबान जीव, जो इस धरती के पहले निवासी थे, आज इंसान के डर से छिपते हैं। उनका घर छीना जा चुका है, उनका भोजन छिन गया है, और उनका अस्तित्व मिटने की कगार पर है। जो कभी इंसान के साथ धरती साझा करते थे, आज उसी इंसान से अपनी जान बचाने को मजबूर हैं।
क्या यही है हमारा विकास? क्या यही है सभ्यता? जहाँ प्रकृति रो रही है, नदियाँ सिसक रही हैं और आसमान धुएँ में घुट रहा है? इंसान ने अपने अहंकार में यह भूल कर दी कि वह इस धरती का मालिक नहीं, बल्कि एक मेहमान है। और जब मेहमान अपने ही घर को आग लगा दे, तो वह घर नहीं, राख का ढेर बन जाता है।
अब वक्त है रुकने का — सोचने का — कि हम कहाँ जा रहे हैं। अगर इंसान ने अब भी अपने स्वार्थ को नहीं छोड़ा, तो यह धरती, जो कभी जीवन का प्रतीक थी, बस इतिहास की एक करुण कहानी बन जाएगी।
धरती को फिर से मुस्कुराने का हक़ दो। पेड़ों को फिर से लहराने दो। और उन बेज़ुबानों को फिर से जीने दो, जो इस धरती के असली वारिस हैं। तभी शायद इंसान अपने पापों से मुक्त होकर सच में “इंसान” कहलाने का हकदार बन सकेगा।


