क्या लोगों की इंसानियत मर चुकी है, जो बेज़ुबानों के शरीर को सदियों से नोच-नोचकर खाया जा रहा है और आज तक उन पर ज़ुल्म जारी है?

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क्या लोगों की इंसानियत मर चुकी है, जो बेज़ुबानों के शरीर को सदियों से नोच-नोचकर खाया जा रहा है और आज तक उन पर ज़ुल्म जारी है?

लेखक: रोहित कुमार

कभी-कभी यह सोचकर रूह काँप जाती है कि इंसान, जिसे सृष्टि का सबसे समझदार और संवेदनशील जीव माना गया है, वही आज सबसे निर्दयी बन चुका है। जिन बेज़ुबानों के साथ हमें इस धरती को बाँटना था, जिनकी आँखों में भरोसा और मासूमियत है, उन्हीं के शरीर को हम सदियों से अपनी भूख और स्वाद के लिए नोचते आ रहे हैं। सवाल यह है — क्या अब हमारी इंसानियत सच में मर चुकी है?
इंसान ने विज्ञान में तरक्की की, आसमान को छू लिया, समंदर की गहराई नाप ली, लेकिन करुणा और दया के मामले में वह दिन-ब-दिन पीछे चला गया। आज भी मांसाहार को सभ्यता का हिस्सा, ताक़त का प्रतीक, और परंपरा का नाम देकर उस पीड़ा को छिपाया जाता है जो हर उस जानवर के भीतर उबलती है जिसे काटा जाता है। वे चिल्लाते हैं, तड़पते हैं, डरते हैं — पर हम उस आवाज़ को अनसुना कर देते हैं, क्योंकि वह हमारे भोजन की थाली तक पहुँचने से पहले ही दबा दी जाती है।
क्या हमने कभी सोचा कि जिस मांस को हम स्वाद कहते हैं, वह किसी की ज़िंदगी का अंत है? किसी माँ की ममता की चीख, किसी बच्चे का अधूरा बचपन, किसी जीव की आखिरी साँस — ये सब हमारे तथाकथित “भोजन” का हिस्सा बन चुके हैं। और हम इसे सामान्य मान बैठे हैं।
यह लेख किसी को नीचा दिखाने या किसी पर उंगली उठाने के लिए नहीं है — यह एक सवाल है हमारी आत्मा से। क्या हम सच में इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि किसी जीव की हत्या अब हमें विचलित नहीं करती? क्या हमारी सभ्यता का मतलब यह है कि हम किसी बेज़ुबान के दर्द पर अपनी ज़रूरत की परत चढ़ा दें?
इंसानियत केवल इंसानों के लिए नहीं होती, बल्कि हर उस जीव के लिए होती है जो इस धरती पर साँस ले रहा है। जब तक हम दूसरों के दर्द को महसूस नहीं करेंगे, तब तक हम सच में इंसान नहीं बन सकते। शायद अब वक्त आ गया है कि हम अपने भीतर झाँकें — और सोचें कि क्या हम सच में उतने “विकसित” हो चुके हैं जितना हम समझते हैं, या फिर हमने केवल अपने स्वार्थ के लिए इंसानियत को दफ़ना दिया है।
अगर हम सच में दुनिया को बेहतर बनाना चाहते हैं, तो शुरुआत दूसरों की पीड़ा को समझने से करनी होगी — उन बेज़ुबानों की भी, जिनके पास अपनी बात कहने की ताक़त नहीं, पर जिनकी आँखों में अभी भी उम्मीद की एक छोटी-सी लौ जल रही है — कि शायद कभी इंसान फिर से इंसान बन जाए।

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