सोसाइटी की दीवारों में कैद इंसानियत
लेखक : रोहित कुमार
आज जब कोई “फ्लैट्स” या “सोसाइटी” का नाम लेता है, तो शरीर अनायास ही सिहर उठता है। वजह साफ़ है — इन आधुनिक इमारतों के पीछे अक्सर वो क्रूर दृश्य छिपे होते हैं, जो इंसानियत को शर्मसार कर देते हैं। जैसे ही “सोसाइटी” शब्द कानों में पड़ता है, आँखों के सामने सबसे पहले वही तस्वीरें उभर आती हैं — मासूम स्ट्रे डॉग्स पर होने वाली निर्दयता की, जिन्हें सिर्फ़ इसलिए पीटा या भगाया गया क्योंकि वे “सोसाइटी के अंदर नहीं आने चाहिए।”
ये वही कुत्ते हैं जो किसी गली के बच्चे की हँसी का हिस्सा होते हैं, जो रात के सन्नाटे में पहरेदार बनकर खड़े रहते हैं। लेकिन उन्हीं को सोसाइटी के लोग डर और गंदगी का प्रतीक मानकर उनसे दुश्मनी कर बैठते हैं। कभी पानी नहीं देने दिया जाता, कभी खाना फेंक दिया जाता, और कभी तो सिर्फ़ भौंकने पर भी लाठियाँ बरसाई जाती हैं।
क्या यह वही समाज है जहाँ दया, प्रेम और करुणा जैसे शब्द कभी जीवन का हिस्सा थे? इन ऊँची दीवारों और सिक्योरिटी गेट्स के भीतर इंसान जितना “सुरक्षित” हुआ है, उतना ही निर्दयी भी।
हम भूल गए हैं कि इंसानियत किसी रेसिडेंशियल गेट के अंदर या बाहर नहीं रहती — वो तो हमारे दिल के अंदर होनी चाहिए।
आज ज़रूरत है इन दीवारों को तोड़ने की, नफरत की नहीं, सोच की। अगर हर इंसान एक रोटी, एक कटोरी पानी और थोड़ी दया बाँट दे, तो शायद ये मूक जीव फिर से भरोसा करना सीख जाएँ।
क्योंकि याद रखिए — जहाँ जानवरों के लिए जगह नहीं होती, वहाँ धीरे-धीरे इंसानियत भी मर जाती है।


