आवारा कुत्तों पर ज़ुल्म –
(यह कविता उन मासूम बेज़ुबानों के लिए है, जो इंसानों की बेरहमी और दुनिया की बेरुख़ी का शिकार होते हैं। यह उनकी भूख, दर्द, और अकेलेपन की कहानी बयान करता है।)
रात काली… सन्नाटा…
कोई सहारा… ना कोई किनारा…
भूख से तड़पता, रोता पड़ा हूँ…
इंसानों की दुनिया में क्यों मैं बड़ा हूँ…
किसी गली के कोने में, सिसक-सिसक मैं रोता हूँ,
पत्थर पड़े हैं जिस्म पे, फिर भी हर रोज़ जीता हूँ।
भूख से आँखें भीगी हैं, सूख चुका है जिस्म मेरा,
क्या कसूर था मेरा इतना, कि दिल तुम्हारा पत्थर हुआ?
ओ इंसान… मुझको भी जीने दे,
थोड़ा सा प्यार ही दे दे…
ना मार यूं पत्थरों से,
मैं भी तेरा साया हूँ…
खुशियों से भरा था बचपन, जब था किसी की गोद में,
पर वक्त ने मुझको फेंक दिया, इस बेरहम शहर की रोड में।
हर कोई मुझसे डरता है, कोई पास नहीं आता,
बस एक टुकड़ा रोटी का, कोई क्यों नहीं दे जाता?
ओ इंसान… मुझको भी जीने दे,
थोड़ा सा प्यार ही दे दे…
ना कर यूं जुल्म मुझ पर,
मैं भी तेरा साया हूँ…
बारिश में भीगूं, सर्दी में कांपू, गर्मी में जलता जाऊं,
फिर भी तेरा वफादार हूँ, बस तुझसे ही डरता जाऊं।
तेरी नफरत का शिकार हूँ, मगर फिर भी मैं तेरा हूँ,
कभी देख मेरी आंखों में, दर्द छुपा जो गहरा हूँ।
ओ इंसान… थोड़ी सी मोहब्बत दे,
मुझको भी ये हक़ तो दे…
जो तूने मुझको ठुकराया,
फिर भी तेरा साया हूँ…
यह गीत उन आवारा कुत्तों की पीड़ा को दर्शाता है, जो इंसानों की नफरत और समाज की बेरुख़ी का शिकार होते हैं। अगर हर कोई थोड़ा सा प्यार और सहारा दे, तो ये मासूम ज़िंदगियाँ संवर सकती हैं।
रोहित कुमार (संपादक)


